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भारतीय रेल : चित्र प्रदर्शनी बिलासपुर
चुनावी सरगर्मी के साथ
शादियों का माहौल भी गर्म है। आम चुनाव और शादियों के मुहूर्त एक साथ आते
हैं। जिससे दोनों ही प्रभावित होते हैं। 18 अप्रेल को एक शादी के सिलसिले
में बिलासपुर जाना था तथा 19 को भी एक शादी में सम्मिलित होना था। इस तरह 2
दिनी बिलासपुर प्रवास तय हो गया। बिलासपुर रेल्वे जोन ने रेल्वे पर आधारित
एक प्रदर्शनी का आयोजन किया था। इस प्रदर्शनी को देखने की भी ललक थी।
"कहाँ शुरु कहाँ खत्म" आत्मकथा के लेखक द्वारिका प्रसाद अग्रवाल जी
को फ़ोन करने पर उन्होने कहा कि "बिलासपुर में आप मेरे मेहमान रहेगें।"
मेरा इरादा था कि एक रात बिल्हा रुका जाए और अगली सुबह फ़िर बिलासपुर पहुंच
जाऊंगा। पर द्वारिका प्रसाद जी के स्नेहिल आग्रह को टाल न सका।
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| आत्मकथा लेखक श्री द्वारिका प्रसाद अग्रवाल जी |
प्रदर्शनी की अंतिम तिथि 18 तारीख बताई गई थी। मैने सोचा कि शाम 5 बजे तक
प्रदर्शनी का समापन हो जाएगा तो देख नहीं पाऊंगा। इसलिए दोपहर को ही
बिलासपुर के चल पड़ा। शाम को 4 बजे तक पहुंच कर भी एक घंटे का समय प्रदर्शनी
के लिए मिल जाएगा। बिलासपुर पहुंचने पर द्वारिका प्रसाद जी स्टेशन पर ही
मिल गए। हम प्रदर्शनी स्थल ढूंढते हुए डी आर एम ऑफ़िस के आगे तक पहुंच गए।
आसमान में बादल होने के कारण गर्मी का असर कम ही था। एक तरह से मौसम सुहाना
ही बन गया था। आखिर ढूंढते हुए प्रदर्शनी तक पहुंच गए। तो हॉल के सभी
दरवाजे बंद थे। मैने सोचा कि समापन हो गया लगता है। परन्तु हॉल में कूलर
चलने का संकेत मिलने पर समझ आ गया कि भीतर कोई तो है। आवाज देने पर दरवाजा
खुल गया। दरवाजा खोलने वाले ने बताया कि प्रदर्शनी की तारीख बढ़ा कर 20 कर
दी गई है।
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| भिलाई स्टील प्लांट का पावर इंजन |
हॉल में थोड़ी सी ही जगह में फ़ोटो प्रदर्शनी लगाई गई थी। अगर सरसरी तौर भी
निगाह डालें तो 5 मिनट में मामला रफ़ा-दफ़ा हो सकता था। लगभग 30 पुराने चित्र
लगाए गए थे। जिनमें रेल्वे संचालन से संबंधित जानकारियाँ दिखाई गई थी। अगर
पार्श्वालोकन करें तो 1887 में बंगाल नागपुर रेल्वे के अंतर्गत बिलासपुर
में रेल लाइन बिछी और 1890 में बिलासपुर स्टेशन बना तथा 1891 में बिलासपुर
जंक्शन। बिलासपुर में सुंदर रेल्वे कालोनी बसाई गई, जो शहर से काफ़ी दूर थी।
प्रारंभिक काल में स्टीम इंजन चलते थे। प्रदर्शनी में स्टीम इंजन के चित्र
भी दिखाई दिए, जो सवारी गाड़ी एवं माल गाड़ी को खींचते थे।
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| रायपुर धमतरी नैरोगेज लाईन का भाप इंजन |
एक चित्र रायपुर धमतरी रेल लाईन के स्टीम इंजन का था। जिसे देखकर मेरी
पुरानी यादें ताजा हो गई। मेरे निवास के एक कोने पर इस नेरोगेज लाईन का
आउटर सिगनल है। गर्मी के दिनों में जब भी यह स्टीम इंजन इधर से गुजरता था
तो ड्रायवर भाप का प्रेसर बढा कर धुंए के साथ कोयले भी उड़ाता था। इन जलते
हुए कोयलों से सूखी घास में आग लग जाती थी। शाम को वक्त तो हमें पानी की
बाल्टी भरकर तैयार रहना पड़ता था। घास में आग लगते ही बुझाया करते थे। अब
भाप के इंजन की छुक छुक की आवाज एवं मधूर सीटी गुजरे हुए जमाने की बात हो
गई। इस स्टीम के इंजन को डी आर एम ऑफ़िस रायपुर के बाहर ट्राफ़ी बना कर रखा
गया है।
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| पुल निर्माण - हैट वाले इंजीनियर के साथ कुत्ता भी दिखाई दे रहा है। |
रेल्वे के शुरुवाती दिनों में पहाड़ों को काटकर बोग्दे बनाकर एवं नदियों पर
पुल बना कर यातायात सुगम किया गया। इस निर्माण से संबंधित चित्र भी
प्रदर्शनी में रखे गए। उस समय सभी व्यक्ति सिर पर पगड़ी पहनते थे। इस चित्र
में नंगे सिर कोई नहीं दिखाई दे रहा। इंजीनियर के निर्देशन में पुल के
निर्माण का कार्य चल रहा है। जिसमें गार्डर लगाने के लिए रस्सी एवं चैन
पुल्ली जैसा यंत्र भी दिखाई दे रहा है। इस चित्र में महत्वपूर्ण बात तो यह
दिखाई दी कि इंजीनियर का पालतू कुत्ता भी उसके साथ पुल निर्माण की
कार्यवाही तल्लीनता से देख रहा है। यह उनके पशुप्रेम को प्रकट करता है।
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| गोंदियां रेल्वे स्टेशन का हिन्दू टी स्टाल |
1932 के एक चित्र से तत्कालीन सामाजिक स्थिति का पता चलता है। यह चित्र
"हिन्दू-चाय" की दुकान का है। उस जमाने में मुस्लिम और हिन्दूओं में इतना
अधिक विभाजन था कि हिन्दू मुसलमान के हाथों का भोजन ग्रहण नहीं करते थे।
इसलिए रेल्वे ने हिन्दू टी स्टाल का अलग से निर्माण कराया। इनके लिए पानी
के नलके भी अलग रहते थे। उस समय लम्बी दूरी का मुसाफ़िर पीने का पानी अपने
साथ लेकर चलता था। ज्ञात हो कि जयपुर के महाराज सवाई मान सिंह द्वितीय 1902
में एडवर्ड सप्तम के राजतिलक समारोह में सम्मिलित होने इंग्लैंड गए थे तो
चांदी के कलशों में लगभग 8000 लीटर गंगाजल अपने साथ ले गए थे।
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| शंटिग के लिए हाथी का सहारा |
उस समय रेल्वे डिब्बों को एक दूसरे से जोड़ने के लिए हाथियों का सहारा लेती
थी। स्टीम इंजन को चलाने के लिए कोयले के भंडार के साथ पानी भी भरपूर
व्यवस्था की जाती थी। इंजन में कोयले भरने के बाद उसमें पानी डाला जाता था,
जिससे कि कोयला सूखने पर उसमें आग न लग जाए। इंजनों के दिशा परिवर्तन के
लिए गोल घर बनाए जाते थे। जिस पर इंजन को चढाकार लेबर धक्का मार कर उसका
दिशा परिवर्तन करते थे। यह व्यवस्था राजस्थान के फ़ूलेरा, जोधपुर जैसे
स्टेशनों पर मैने देखी है।
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| बोग्दा |
जनशक्ति के आवागमन के लिए रेल्वे उपयोगी साधन बन गया। आजादी के पहले रेल
संचालन खंड-खंड में निजी कम्पनियों द्वारा किया जाता था। जिनके अलग-अलग
प्रतीक चिन्ह हुआ करते थे। इस प्रदर्शनी में इन निजी कम्पनियों के प्रतीक
चिन्हों को भी प्रमुखता से दर्शाया गया। रेल्वे के एकीकरण के पश्चात इसका
प्रतीक चिन्ह बदल गया। इन प्रतीक चिन्हों को देखने के पश्चात पता चलता है
कि किन कम्पनियों द्वारा रेल परिवहन का संचालन हो रहा था।
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| निर्माण के दौरान क्रेन का उपयोग |
ऐसी एक रेल मारवाड़ जंक्शन से उदयपुर के लिए खामली घाट होते हुए चला करती
थी। जो जोधपुर रियासत की निजी रेल थी। इस रेल से मुझे यात्रा करने का
सौभाग्य 1990 में मिला था। शायद अब यहाँ अमान परिवर्तन के कारण यह रेल नहीं
चलती हो। रेल चित्र प्रदर्शनी से लौट कर हम श्री जगदीश होटल पहुंचे। कुछ
देर विश्राम करने के पश्चात आशीर्वाद समारोह में सम्मिलित हुए। अगला दिन
हमने मल्हार दर्शन के लिए तय किया।
छत्तीसगढ़ का मधुबन धाम
छत्तीसगढ़ अंचल में फ़सल
कटाई और मिंजाई के उपरांत मेलों का दौर शुरु हो जाता है। साल भर की हाड़
तोड़ मेहनत के पश्चात किसान मेलों एवं उत्सवों के मनोरंजन द्वारा आने वाले
फ़सली मौसम के लिए उर्जा संचित करता है। छत्तीसगढ़ में महानदी के तीर राजिम
एवं शिवरीनारायण जैसे बड़े मेले भरते हैं तो इन मेलों के सम्पन्न होने पर
अन्य स्थानों पर छोटे मेले भी भरते हैं, जहाँ ग्रामीण आवश्यकता की सामग्री
बिसाने के साथ-साथ खाई-खजानी, देवता-धामी दर्शन, पर्व स्नान, कथा एवं
प्रवचन श्रवण के साथ मेलों में सगा सबंधियों एवं इष्ट मित्रों से मुलाकात
भी करते है तथा सामाजिक बैठकों के द्वारा सामाजिक समस्याओं का समाधान करने
का प्रयास होता है। इस तरह मेला संस्कृति का संवाहक बन जाता है और पीढी दर
पीढी सतत रहता है।
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| मधुबन धाम का गुगल मैप |
कुछ स्थानों पर मेले स्वत: भरते हैं तो कुछ स्थानों पर ग्रामीणों के प्रयास
से लघु रुप में प्रारंभ होकर विशालता ग्रहण कर लेते हैं। ऐसा ही एक स्थान
छत्तीसगढ़ के धमतरी जिले स्थित कुरुद तहसील अंतर्गत रांकाडीह ग्राम हैं।
यहाँ 35 वर्षों से मधुबन धाम मेला फ़ाल्गुन शुक्ल पक्ष की तृतीया से एकादशी
तक भरता है। मधुबन धाम रायपुर व्हाया नवापारा राजिम 61 किलोमीटर एवं रायपुर
से व्हाया कुरुद मेघा होते हुए 69 किलोमीटर तथा ग्लोब पर 20040’4986”
उत्तर एवं 81049’4262” पूर्व पर स्थित है।
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| मधुबन धाम का रास्ता और नाला |
मधुबन लगभग 20 हेक्टेयर भूमि पर फ़ैला हुआ है। इस स्थान पर महुआ के वृक्षों
की भरमार होने के कारण मधुक वन से मधुबन नाम रुढ हुआ होगा। यह स्थान महानदी
एवं पैरी सोंढूर के संगम स्थल राजिम से पहले नदियों के मध्य में स्थित है।
राजिम कुंभ स्थल से हम नयापारा से भेंड्री, बड़ी करेली होते हुए मधुबन धाम
पहुंचे। यहाँ पर छत्तीसगढ़ शासन द्वारा मेले के दौरान संतों के निवास के लिए
संत निवास नामक विश्राम गृह बनाया हुआ है। आस पास के क्षेत्र में चूना से
चिन्ह लगाए होने अर्थ निकला कि मेले की तैयारियाँ प्रारंभ हो गई हैं।
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| बोधन सिंह साहू खैरझिटी वाले |
विश्राम गृह का अवलोकन करने के पश्चात मेरी मुलाकात खैरझिटी निवासी 82
वर्षीय बोधन सिंह साहू से होती है। राम-राम जोहार के पश्चात उन्हें कुर्सी
देने पर वे कहते हैं - 35 वर्षों से मैं मधुबन क्षेत्र में कुर्सी तख्त
इत्यादि पर नहीं बैठता। भूमि पर ही बैठता हूँ और नंगे पैर ही चलता हूँ।
ईश्वरीय कृपा से आज तक मेरे पैर में एक कांटा भी नहीं गड़ा है।" वे ईंट की
मुंडेर पर बैठ जाते हैं और हमारी चर्चा शुरु हो जाती है। मेला जिस जमीन पर
भरता है वह जमीन रांकाडीह गाँव की है। मेरे पूछने पर वो कहते हैं कि इस
गाँव में कोई भी डीही नहीं है। जिसके कारण इस गांव का नाम रांकाडीह पड़ा हो।
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| संत निवास मधुबन धाम |
मेले के विषय में मेरे पूछने पर कहते हैं कि - " मेरा गांव खैरझिटी नाले के
उस पार है। हमारे गांव में गृहस्थ संत चरणदास महंत रहते थे। वे तपस्वी एवं
योगी थे। उनके मन आया कि मधुबन में मंदिर स्थापना होनी चाहिए, रांकाडीह के
जमीदार से भूमि मांगने पर उसने इंकार कर दिया। इसके पश्चात वे घर लौट आए।
एक दिन उनकी पत्नी ने चावल धो कर सुखाया था और गाय आकर खाने लगी। महंत ने
गाय को नहीं भगाया और उसे चावल खाते हुए देखते रहे। यह दृश्य देखकर उनकी
पत्नी आग बबूल होकर बोली - आगि लगे तोर भक्ति मा। तो महंत ने कहा कि - मोर
भक्ति मा आगि झन लगा। मैं हं काली रात 12 बजे अपन धाम म चल दुहूँ। (मेरी
भक्ति में आग मत लगा, मैं कल रात 12 बजे अपने धाम को चला जाऊंगा। अगले दिन
रात 12 बजे बाद महंत ने बैठे हुए प्राणोत्सर्ग कर दिया। बात आई गई हो गई।
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| मधुबन धाम के मधुक वृक्ष |
बोधन सिंह आगे कहते हैं कि - पहले यह घना जंगल था तथा जंगल इतना घना था कि
पेड़ों के बीच से 2 बैल एक साथ नहीं निकल सकते थे। महंत के जाने के बाद यहां
पर कुछ लोगों को बहुत बड़ा लाल मुंह का वानर दिखाई दिया। वह मनुष्यों जैसे
दो पैरों पर खड़ा दिखाई देता था। देखने वालों ने पहले उसे रामलीला की
पोशाकधारी कोई वानर समझा, लेकिन वह असली का वानर था। उसके बाद हम सब गांव
वालों ने इस घटना पर चर्चा की। खैरझिटी गाँव में अयोध्या से बृजमोहन दास
संत पधारे। उन्होने यहाँ यज्ञ करने की इच्छा प्रकट की। हम सबने जाकर
रांकाडीह के गौंटिया से यज्ञ में सहयोग करने का निवेदन किया तो उन्होने
पूर्व की तरह नकार दिया। लेकिन हम सब ने जिद करके यहाँ यज्ञ करवाया जो 9
दिनों तक चला। तब से प्रति वर्ष यहाँ यज्ञ के साथ मेले का आयोजन हो रहा है।
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| मधुबन धाम के विभिन्न समाजों के मंदिर |
रांकाडीह निवासी शत्रुघ्न साहू बताते हैं कि "इस मेले में 11 ग्रामों
खैरझिटी, अरौद, गिरौद, कमरौद, सांकरा, भोथीडीह, रांकाडीह, चारभाटा, कुंडेल,
मोतिनपुर, बेलौदी के निवासी हिस्स लेते हैं। मेला स्थल पर विभिन्न समाजों
के संगठनों ने निजी मंदिर एवं धर्मशाला बनाई हैं। साहू समाज का कर्मा
मंदिर, देशहा सेन समाज का गणेश मंदिर, निषाद समाज का राम जानकी मंदिर,
आदिवासी गोंड़ समाज का दुर्गा मंदिर, निर्मलकर धोबी समाज का शिव मंदिर,
झेरिया यादव समाज का राधाकृष्ण मंदिर, कोसरिया यादव समाज का राधाकृष्ण
मंदिर, लोहार समाज का विश्वकर्मा मंदिर, कंड़रा समाज का रामदरबार मंदिर,
मोची समाज का रैदास मंदिर, कबीर समाज का कबीर मंदिर, गायत्री परिवार का
गायत्री मंदिर, कंवर समाज का रामजानकी मंदिर, मधुबन धाम समिति द्वारा
संचालित उमा महेश्वर एवं हनुमान मंदिर, लक्ष्मीनारायण साहू बेलौदी द्वारा
निर्मित रामजानकी मंदिर, स्व: मस्त राम साहू द्वारा निर्मित हनुमान मंदिर
स्थापित हैं।"
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| सरोवर में विराजे हैं भगवान कृष्ण |
मधुबन में मेला आयोजन के लिए मधुबन धाम समिति का निर्माण हुआ है, यही समिति
विभिन्न उत्सवों का आयोजन करती है। फ़ाल्गुन मेला के साथ यहां पर चैत
नवरात्रि एवं क्वांर नवरात्रि का नौ दिवसीय पर्व धूमधाम से मनाया जाता है
तथा दीवाली के पश्चात प्रदेश स्तरीय सांस्कृति मातर उत्सव मनाया जाता है,
जिसकी रौनक मेले जैसी ही होती है। चर्चा आगे बढने पर बोधन सिंह बताते हैं
कि - मधुबन की मान्यता पांडव कालीन है, पाँच पांडव में से सहदेव राजा ग्राम
कुंडेल में विराजते हैं और उनकी रानी सहदेई ग्राम बेलौदी में विराजित हैं,
यहाँ से कुछ दूर पर महुआ के 7 पेड़ हैं , जिन्हें पचपेड़ी कहते हैं। इन
पेड़ों को राजा रानी के विवाह अवसर पर आए हुए बजनिया (बाजा वाले) कहते हैं
तथा मधुबन के सारे महुआ के वृक्षों को उनका बाराती माना जाता है।
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| हनुमान मंदिर एवं यज्ञ शाला |
ऐसी मान्यता भी है कि भगवान राम लंका विजय के लिए इसी मार्ग से होकर गए थे।
इस स्थान को राम वन गमन मार्ग में महत्वपूर्ण माना जाता है। मेला क्षेत्र
के विकास के लिए वर्तमान पर्यटन एवं संस्कृति मंत्री अजय चंद्राकर ने अपने
पूर्व विधायक काल विशेष सहयोग किया है। तभी इस स्थान पर शासकीय राशि से संत
निवास का निर्माण संभव हुआ। मधुबन के समीप ही नाले पर साप्ताहिक बाजार
भरता है। सड़क के एक तरफ़ शाक भाजी और दूसरी मछली की दुकान सजती है। होटल
वाले ने बताया कि मेला के दिनों में यहां पर मांस, मछरी, अंडा, मदिरा आदि
का विक्रय एवं सेवन कठोरता के साथ वर्जित रहता है। यह नियम समस्त
ग्रामवासियों ने बनाया है। यदि कोई इस स्थान पर इनका सेवन करता है तो उसे
बजरंग बली के कोप का भाजन बनना पड़ता और विक्रय करने वाले को पुलिस पकड़ लेती
है।
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| शत्रुघ्न साहू मधुबन धाम समिति पदाधिकारी |
आस पास से सभी ग्राम साहू बाहुल्य हैं, गावों की कुल आबादी में 75% तेली
जाति की हिस्सेदारी है। हम मंदिरों के चित्र लेते हैं, बाजार क्षेत्र में
मेले में दुकान लगाने के लिए आबंटन होने से काफ़ी शोर गुल हो रहा था। हनुमान
मंदिर एवं यज्ञ शाला के चित्र लेने के पश्चात हम तालाब में स्थित कालिया
मर्दन करते हुए श्रीकृष्ण की प्रतिमा का चित्र लेते पहुंचते हैं, तभी वहाँ
पर गायों का झुंड आ जाता है, इससे हमारी फ़ोटोग्राफ़ी में चार चाँद लग जाते
हैं, कृष्ण प्रतिमा के पार्श्व में गायें चरती हुई दिखाई देती हैं। कृष्ण
का गायों के साथ जन्म जन्म का संबंध है। इसलिए गायें भी अपनी भूमिका निभाने
चली आती हैं। तालाब में पचरी बनाने का कार्य जारी है। मेले को देखते हुए
तैयारियाँ युद्ध स्तर पर हो रही हैं। आगामी फ़ाल्गुन शुक्ल की तृतीया (3
मार्च) से एकादशी (11 मार्च) तक मेला सतत चलेगा। हम मधुबन की सैर करके वापस
राजिम कुंभ होते हुए घर लौट आए।
नगाड़ों का सफ़र
वसंतागमन के साथ
प्रकृति खिल उठती है, खेतों में रबी की फ़सल के बीच खड़े टेसू के वृक्ष फ़ूलों
से लद जाते हैं, मानों प्रकृति धानी परिधान पहन कर टेसू के वन फ़ूलों से
अपना श्रृंगार कर वसंत का स्वागत कर रही हो। टेसू के फ़ूलों से प्रकृति अपना
श्रृंगार कर पूर्ण यौवन पर होती है तथा वातावरण में फ़ूलों की महक गमकते
रहती है। पतझड़ का मौसम होने के कारण पहाड़ों पर टेसू के फ़ूल ऐसे दिखाई देते
हैं जानो पहाड़ में आग लग गई हो। विरही नायिका के हृदय को भी अग्निदग्ध करने
में यह ॠतू कोई कसर बाकी नहीं रखती। इसी समय होली का त्यौहार आता है और
दूर कहीं नगाड़ों के बजने की मधुर ध्वनि सुनाई देती है। साथ ही होली के फ़ाग
गीत वातावरण को मादक बनाने में सहायक होते हैं।
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| टेसू (शुक चंचु) के फ़ूल |
"अयोध्या में राम खेलैं होरी, जहाँ बाजे नगाड़ा दस जोड़ी" फ़ाग गीत के साथ
नगाड़ों की धमक सांझ होते ही चहूं ओर सुनाई देती है। होली के त्यौहार का
स्वरुप बदलते जा रहा है लेकिन गावों में परम्पराएं कायम हैं। नगाड़ा प्राचीन
वाद्य है, जिसे दुदूम्भि, धौरा, भेरी, नक्कारा, नगाड़ा, नगारा, दमदमा
इत्यादि नामों से भारत में जाना जाता है। छत्तीसगढ़ अंचल में विशेषकर नगाड़ा
या नंगाड़ा कहा जाता है। संस्कृत की डम धातू का अर्थ ध्वनि होता है। इसलिए
इसे दमदमा भी कहा जाता है। इसका अर्थ लगातार या मुसलसल होता है।
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| कोकड़ा |
शनिचरी बाजार में मेरी मुलाकात नगाड़ों की दुकान सजाए मन्नु लाल हठीले से
होती है, नगाड़े बनाने एवं बेचने में इनकी उत्मार्ध बुधकुंवर भी हाथ बटाती
दिखाई देती है। मन्नु लाल मिट्टी की हांडियों पर चमड़ा कसते हैं और बुधकुंवर
चमड़े को विभिन्न रंगों से सजाती है। इनकी दुकान में 80 रुपए से लेकर 1200
रुपए तक के नगाड़े की जोड़ियाँ विक्रय के लिए रखी हुई हैं। पूछने पर बताते
हैं कि इनका पैतृक घर डोंगरगढ में है। गत 20 वर्षों से ये नगाड़ा बनाने एवं
बेचने का काम करते हैं। होली के अवसर पर विशेषकर नगाड़ों की बिक्री होती है।
बाकी दिनों में जूता चप्पल बेचने का काम करते हैं।
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| मन्नु लाल हठीले एवं बुधकुंवर |
छत्तीसगढ़ अंचल में नगाड़े बनाने का काम विशेषत: चमड़े का व्यवसाय करने वाली
मोची, मेहर और गाड़ा जातियाँ करती हैं। फ़ूलकुंवर कहती है कि पहले शादी के
अवसर पर दफ़ड़ा एवं निशान बाजा बहुत बिकता था, परन्तु धुमाल बाजा आने के कारण
इनकी बिक्री कम हो गई। दफ़ड़ा निशान बजाने वाले भी अब कम ही हैं। होली के
बाद नगाड़ों की बिक्री पर विराम लग जाता है, महीनें में कोई एकाध जोड़ी नगाड़ा
बिक्री होता है, वह भी कबूलना एवं बदना वाले लोग देवता-धामी मंदिर आदि में
चढाने के लिए ले जाते हैं। कबुलना नगाड़े इन नगाड़ों से बड़े बनते हैं।
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| नगाड़ों पर कलमकारी |
नगाड़ा बनाने के लिए मिट्टी की हाँडी के साथ चमड़े का उपयोग होता है। मन्नु
लाल बताते हैं कि नगाड़े की जोड़ी में दो सुर होते हैं, जिसे "गद" और "ठिन"
कहते हैं। इसका निर्माण बैल या गाय के चमड़े से होता है। पशु के शीर्ष भाग
का चमड़ा पतला होता है जिससे "ठिन" एवं पार्श्व भाग का चमड़ा मोटा होता है
इससे "गद" नगाड़ा बनाया जाता है। हाँडी पर चमड़ा मढने के लिए भैंसे के चमड़े
की रस्सियों उपयोग में लाई जाती हैं। तभी नगाड़ों से "गद" एवं "ठिन" की
ध्वनि निकलती है। छोटा नगाड़ा बनाने के लिए बकरा-बकरी और अन्य जानवरों का
चमड़ा उपयोग में लाया जाता है। इसे बजाने के लिए दो डंडियों का इस्तेमाल
होता है जिन्हें स्थानीय बोली में "बठेना" कहा जाता है। नगाड़े की वास्तविक
ध्वनि का आनंद गाय-बैल के चमड़े से मढे नगाड़े में ही आता है।
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| नगाड़े बजा कर "गद" एवं "ठिन" ध्वनि का परिक्षण |
मन्नुलाल कहते हैं कि होली के समय नगाड़े बेचकर 10 -15 हजार रुपए बचा लेते
हैं। मंह्गाई बहुत बढ गई है, कच्चे माल का मूल्य भी आसमान छू रहा है। पहले
एक ट्रक माल लेकर आते थे, वर्तमान में एक मेटाडोर ही नगाड़े लेकर आए हैं,
किराया भी बहुत बढ गया। साथ ही रमन सरकार की तारीफ़ करते हुए कहते हैं कि
राशन कार्ड में चावल, गेहूं, नमक, चना इत्यादि मिलने से गुजर-बसर अच्छे से
चल रहा है। वरना जीवन भी बहुत कठिनाईयों से चलता था। इसी बीच फ़ूलकुंवर कहती
है कि उनका स्मार्ट कार्ड नहीं बना है, आधार कार्ड बन गया है। इतना कहकर
वह चूल्हे पर भोजन बनाने की तैयारी करने लगती है।
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| नगाड़े संवारती बुध कुंवर |
इतिहास से ज्ञात होता है कि नगाड़ा प्राचीन संदेश प्रणाली का महत्वपूर्ण
यंत्र माना जाता है। इसके माध्यम से एक स्थान से दूसरे स्थान तक संदेश
शीघ्र ही पहुंचाया जाता था एवं नगाड़ा का प्रयोग सूचना देने में किया जाता
था। जब किसी सरकारी आदेश को जनता तक प्रसारित करना होता था तो नगाड़ा बजाकर
संदेश सुनाया जाता था। युद्ध काल में सेना के प्रस्थान के समय नगाड़े बजाए
जाते थे, मुगलों के दरबार में फ़ैसले नगाड़ा बजा कर सुनाए जाते थे तथा किसी
की जायदाद कुर्की करने की सूचना देने का कार्य भी नगाड़ा बजा कर किया जाता
था।
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| पतझड़ का मौसम खड़ुवा के जंगल में |
वर्तमान में नगाड़ा मंदिरों में आरती के समय बजाया जाता है या फ़िर होली के
अवसर पर बजाया जाता है। छत्तीसगढ़ अंचल में सामूहिक होलिका दहन स्थल पर फ़ाग
गीतों के साथ इसका उपयोग किया जाता है। नगाड़ा बजता है तो गायक का
उत्साहवर्धन होता है और सुर ताल बैठने पर फ़ाग गीत रात के सन्नाटे को चीरते
हुए दूर तक सुनाई देते हैं। नगाड़ों की ध्वनि के साथ वसंत का रंग सारे
वातावरण पर छा जाता है। होली समीप है और नगाड़ों की ध्वनि मन को मोह रही है।
आस पास बजते नगाड़े का होली का स्वागत कर रहे हैं …… डम डम डम डम डमक डम
डम…………
(डिस्क्लैमर - सभी चित्र एवं लेखन सामग्री लेखक की निजी संपत्ति हैं, इनका बिना अनुमति उपयोग करना कापीराईट के अधीन अपराध माना जाएगा। अनुमति के लिए shilpkarr@gmail.com पर सम्पर्क करें।)
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सरगुजा का रामगिरि
छत्तीसगढ़ के सरगुजा जिला मुख्यालय से 50 किलो मीटर की दूरी पर बिलासपुर सड़क
मार्ग पर उदयपुर से दक्षिण में रामगढ़ पर्वत स्थित है। दण्डकारण्य के
प्रवेश द्वार स्थिति समुद्र तल से 3,202 फ़ीट की ऊंचाई पर अद्वितीय
प्राकृतिक वैभव के साथ प्राचीन इतिहास एवं संस्कृति को अपने आप में संजोए
यह सदियों से अटल है। यहाँ घने शीतल छायादार वृक्षों की शीतलता से युक्त
विश्व का चिरंतन नाट्य तीर्थ "शैलगुहाकार नाट्यमण्डप" का एकमात्र जीवंत
अवशेष है। यहीं रामायण कालीन ॠषि शरभंग का आश्रम माना गया है। यहां सीता
बेंगरा एवं जोगी मारा नामक प्राचीन गुफ़ाए हैं। भगवान रामचंद्र के वनवास का
कुछ काल माता सीता के साथ रामगढ़ पर्वत की गुफ़ा में निवास करने के कारण
उत्तरी गुफ़ा को सीता बेंगरा का नाम दिया गया।
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| रामगढ़ पर मेघदूत |
कविकुलगुरु महाकवि कालिदास ने यहीं मेघदूत की रचना की थी। दक्षिणी गुफ़ा
जोगीमारा में मेघदूत का यक्ष निर्वासित था। जोगी मारा गुफ़ा में
भित्तिचित्रों के प्राचीन प्रमाण उत्कीर्ण हैं। विद्वान इनका काल ईसा पूर्व
तीसरी शताब्दी मानते हैं। ये भित्ती चित्र अजंता एलोरा की गुफ़ाओं में
उत्कीर्ण भित्तीचित्रों जैसे ही हैं जो यहाँ की प्राचीन सांस्कृतिक
सम्पन्नता के प्रतीक हैं। कोरिया राज्य के दीवान रघुवीर प्रसाद द्वारा रचित
झारखंड झंकार नामक पुस्तक में उल्लेख है कि रकसेल राजवंश के विष्णु प्रताप
सिंह ने रामगढ़ में एक किले का निर्माण किया तथा यहां पर 35 वर्षों तक राज
किया।
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| हाथी खोल |
रामगढ़ पर्वत में गुफ़ाओं तक पहुचने के लिए हाथीपोल नामक सुरंग है। यह सुरंग
180 फ़ीट लम्बी एवं प्राकृतिक होने के साथ इतनी ऊंची है कि हाथी भी इसमें से
सरलता प्रवेश कर सकता है। दोनों ही गुफ़ाओं में दूसरी शती ईसा पूर्व के
अभिलेख उत्कीर्ण हैं। जिसमें से सीता बेंगरा प्राचीन नाटयशाला है। कर्नल
ओसले ने सन् 1843 में तथा जर्मन विद्वान डॉ ब्लॉख ने इसे 1904 में जर्मन
जर्नल में प्रकाशित किया था। इसके पश्चात डॉ बर्जेस ने इंडियन एंटीक्वेरी
में इसको विस्तार से वर्णित किया।
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| सीता बेंगरा (प्राचीन नाट्य शाला) |
प्राचीन काल में सीता बेंगरा गुफ़ा पर्वत काट कर बनाई गई है। 44 फ़ीट लम्बी
और 15 फ़ीट चौड़ी सीता बेंगरा गुफ़ा के प्रवेश द्वार के समीप दाहिनी ओर श्री
राम चरण चिन्ह उत्कीर्ण हैं। इसके मुख्यद्वार के समक्ष शिलानिर्मित
चंद्राकार सोपान जैसी बाहर की ओर संयोजित पीठिकाएं है। प्रवेश द्वार के
समीप भूमि में खम्भे गाड़ने के लिए दो छिद्र् बनाए गए हैं। इस गुफ़ा का
प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर है एवं पूर्व में पहाड़ी है। विद्वानों कि
अवधारणा है कि भारतीय नाट्य के इस आदिमंच के आधार पर ही भरतमुनि ने अपने
ग्रंथ में गुफ़ाकृति नाट्यमंडप को स्थान दिया होगा- कार्य: शैलगुहाकारो
द्विभूमिर्नाट्यमण्डप:।
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| रामगढ़ पर्वत की चढाई |
इसी गुफ़ा के प्रवेश करने पर बाएं तरफ़ मागधी भाषा में 3 फ़ीट 8 इंच के दो
पंक्तियों के लेख से इस स्थान पर राष्ट्रीय स्तर के कवि सम्मेलन होना पहला
शिलालेखिय प्रमाण माना जाता है। प्रो व्ही के परांजपे की "ए फ़्रेश लाईट ऑन
मेघदूत के अनुसार यह शिलालेख निम्नानुसार है "आदि पयंति हृदयं सभावगरु कवयो
ये रातयं… दुले वसंतिया! हसवानुभूते कुद स्पीतं एवं अलगेति" अर्थात हृदय
को आलोकित करते हैं। स्वभाव से महान ऐसे कविगण रात्रि में… वासंती दूर है।
संवेदित क्षणों में कुंद पुष्पों की मोटी माला को हि आलिंगित करता है।
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| जोगी मारा गुफ़ा का प्रसिद्ध लेख |
जोगीमारा गुफ़ा में मौर्यब्राह्मी लिपि में शिलालेख अंकित है जिससे सुतनुका
तथा उसके प्रेमी देवदत्त के बारे में पता चलता है। जोगीमारा गुफ़ा की उत्तरी
भित्ती पर उत्कीर्ण पांच पंक्तियाँ है - शुतनुक नम। देवदार्शक्यि।
शुतनुकम। देवदार्शक्यि। तं कमयिथ वलन शेये। देवदिने नम। लुपदखे। अर्थात
सुतनुका नाम की देवदासी (के विषय में) सुतनुका नाम की देवदासी को
प्रेमासक्त किया। वरुण के उपासक(बनारस निवासी) श्रेष्ठ देवदीन नाम के
रुपदक्ष ने। इससे प्रतीत होता है कि जोगीमारा गुफ़ा की नायिका सुतनुका है।
आचार्य कृष्णदत्त वाजपेयी के अनुसार भित्तिलेख से यह ध्वनि निकलती है कि
सुतनुका नाम की नर्तकी थी, जिसके लिए देवदासी एवं रुपदर्शिका इन दो शब्दों
का प्रयोग किया गया है। इसके प्रेमी का नाम देवदत्त था। संभवत: देवदत्त
द्वारा गुफ़ाओं में उक्त लेख अंकित कराए गए, ताकि उस स्थान पर उसकी
नाट्य-प्रिया सुतनुका का नाम अजर-अमर हो जाए।
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| गुहा शैल चित्र जोगीमारा गुफ़ा |
जोगीमारा गुफ़ा में यक्ष का निवास था। यहाँ प्राकृतिक रंगों से उत्कीर्ण
चित्रकला ऐतिहासिक महत्व रखती है। यक्ष के इस प्रवास कक्ष में प्राचीनतम
भित्तीचित्र आज भी प्राचीन कला एवं संस्कृति का स्मरण कराते हैं। एक ओर
पुष्पों एवं पल्लव तोरणों की पृष्ठ भूमि में तीन अश्वों से खींचा जाता रथ
है और दूसरी ओर रंग बिरंगी मछलियाँ चित्रित हैं। मानवीय आकृतियों के साथ
सामुहिक नृत्य संगीत के साथ उत्सव मनाते हुए लाल, काले एवं सफ़ेद रंग से
रेखांकित चित्र जोगीमारा गुफ़ा में जीवंत दिखाई देते हैं। इन चित्रों को
विद्वानों ने ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी का माना है। डॉ हीरालाल इन
भित्तीचित्रों को बौद्ध धर्म से संबंधित मानते हैं तथा रायकृष्णदास इन्हे
जैन धर्म से संबंधित कहते हैं क्योंकि पद्मासन में एक व्यक्ति की आकृति
चित्रित है एवं इन्हे कलिंग नरेश खारवेल का बनवाया मानते हैं। जैन मुनि
कांति सागर ने इस गुफ़ा के कुछ चित्रों का विषय जैन धर्म से संबंधित माना
है। इन चित्रों में इतिहास समाया हुआ है। आवश्यकता है सिर्फ़ उसे पढने,
जानने एवं समझने की।
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| रामगढ में उपेन्द्र दुबे, अमित सिंह देव और ब्लॉगर ललित शर्मा |
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| रामगढ़ पर्वत के शिखर पर स्थित मंदिर में सीता, लक्ष्मण, हनुमान एवं राम विग्रह |
"संस्कृत साहित्य में सरगुजा" लेख में वे अपनी बात को वाल्मीकि रामायण के
उद्धरण से और स्पष्ट करते हैं " सरगुजा के प्रशांत, प्रकृति वातावरण ने
प्राचीन समय में महर्षि शरभंग के प्रामुख्य में अवस्थित ॠषि कुल को जीवन
दिया है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार शरभंग आश्रम ब्रह्मभवन की भांति ऊंचा
तथा वेद मंत्रों से अनुकुंचित रहता था। यहाँ प्रतिदिन पूजा एवं
नृत्य-संगीत अप्सराएं किया करती थी -पूजितं चोपनृत्तंच नित्यमप्सरसां
गणैं:, तद ब्रह्मभवन-प्रख्यं ब्रह्म घोषनिनादितम्।
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| प्राचीन नाट्य शाला में श्री राम चरण चिन्ह |
डॉ भास्कराचार्य जी “रघुपतिपदैरकिंतं मेखलासु” में कहते हैं कि मुक्ति
प्रदाता दण्डकारण्य के प्रवेशद्वार पर आज भी त्रेतायुगीन नाट्य शाला
अवस्थित है, जिसके समक्ष श्रीराम क पदार्पण होते ही शरभंग आश्रम के कुशल
शिल्पियों ने दिवय चरण-चिन्ह छेनियों से उट्टंकित कर सदा के लिए संजो लिए
होगें। इन चरण चिन्हों की आराधनाअ से दो हजार वर्ष पूर्व महाकवि कालिदास की
काव्य प्रतिभा परवान चढी होगी, तभी रामगिरि की पहचान बताते हुए उन्होने
मेघदूत के बारहवें पद्य में कहा है -आपृच्छस्व प्रियसखममुं तुंगमालिंग्य
शैलम वन्द्यै: पुंसां रघुपतिपदैरकिंतं मेखलासु। काले काले भवति भवतो यस्य
संयोगमेत्य स्नेहव्यक्तिश्चिरविरहजं मुच्ञ्तो वाष्पमुष्णम्। सीता बेंगरा
गुफ़ा में श्रीराम के पदचिन्हों के अंकित होने को स्पष्ट रुप से प्रदर्शित
किया है। यक्ष मेघ से कहता है कि मेरे मित्र समय-समय पर इस पर्वत पर आते हो
मुझे लगता है जितने दिन अलग रहते हो, उन्ही की याद करके पानी की शक्ल में
गरम-गरम आँसू गिराया करते हो।
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| रामगढ़ पर्वत पर स्थित मंदिर |
इस आश्रम का तालमेल रामगढ़ में ही दिखाई देता है। जहाँ सात द्वारों से
निर्मित विशाल मंदिर के भग्नावशेष अभी भी शिलालेख के माध्यम से सुतनुका
देवदासी का नृत्य सुनाया करते हैं। पास ही थार पर्वत से निकल कर मांड नदी
प्रवाहित होती है, जिसका किनारा लेकर राम शरभंग के निर्देशन में आगे बढ़े
थे। विद्वानों का मत है कि रामगढ़ की गुफ़ाओं में रहकर ही कालीदास ने मेघदूत
की रचना की थी। कालिदास ने अपने मेघदूत में रामगढ़ को रामगिरि कहा है।
“वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयम” पूर्वमेघ-2 में रामगिरि पर्वत का शिखर
विन्यास वप्र क्रीडा करते हुए हाथी जैसा बताया गया है। इससे प्रतीत होता है
कि महाकवि कालिदास ने रामगढ से ही मेघदूत की रचना की थी। प्रो परांजपे आदि
विद्वानों ने भी यही माना है।
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| “वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयम" रामगिरि पर्वत |
मेघदूत के प्रमाणों का सत्यापन करने के पश्चात विद्वानों ने रामगढ़ पर्वत को
ही रामगिरि चिन्हित किया है। इससे सिद्ध होता है कि कालिदास का रामगिरि से
गहरा नाता है। यहीं यक्ष ने निवास कर प्रिया को प्रेम का संदेश भेजा था।
शरभंग ॠषि का आश्रम एवं भगवान राम एवं सीता का वनवास के दौरान दण्डकारण्य
के इस प्रवेश द्वार रामगढ़ में निवास करना इसे त्रेतायुग के साथ जोड़ता है।
विश्व की प्राचीन नाट्यशाला हमें संस्कृति की पहचान कराती है तो सीताबेंगरा
का शिलालेख राष्ट्रीय स्तर के कवि सम्मेलन का प्रमाण देता है।
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| ब्लॉगर ललित शर्मा एवं सांध्य दैनिक छत्तिसगढ़ के संवाददाता मुन्ना पांडे |
जोगीमारा गुफ़ा में उत्कीर्ण शिलालेख से रुपदर्शिका नर्तकी सुतनुका एवं
रुपदक्ष देवीदत्त की शहस्त्राब्दियों पुरानी प्रेम कहानी से परिचय होता है।
जोगीमारा की गुफ़ा में अंकित भित्तीचित्र बौद्ध एवं जैन धर्म के साथ रामगढ़
का संबंध प्रदर्शित करते हैं तो सरगुजा राज्य में स्थापित रकसेल राजवंश के
प्रथम शासक द्वारा रामगढ़ पर्वत पर किला बनाकर 35 वर्षों तक राज करना भी
बताते हैं। यह रामगढ़ का ज्ञात इतिहास है। अभी रामगढ़ परिक्षेत्र में अनेकों
ऐसे ऐतिहासिक स्थल होगें जो अज्ञात हैं। रामगढ़ का ऐतिहासिक महत्व किसी भी
अन्य स्थान से कम प्रतीत नहीं होता है।
सुअरमार गढ़
छत्तीसगढ़ अंचल में
मृदा भित्ति दुर्ग बहुतायत में मिलते हैं। प्राचीन काल में जमीदार, सामंत
या राजा सुरक्षा के लिए मैदानी क्षेत्र में मृदा भित्ति दुर्गों का निर्माण
करते थे एवं पहाड़ी क्षेत्रों में उपयुक्त एवं सुरक्षित पठार प्राप्त होने
पर वहाँ दुर्ग का निर्माण किया जाता था। दुर्गों के चारों तरफ़ गहरी खाई
(परिखा) हुआ करती थी। जिसमें भरा हुआ पानी गढ की सुरक्षा एवं निस्तारी के
काम आता था। ऐसा ही एक दुर्ग रायपुर से लगभग 115 किलोमीटर पूर्व दिशा में
स्थित है, जिसे सुअरमाल गढ़ या सुअरमार गढ़ कहा जाता है। इसे रायपुर राज का
13 वां गढ़ माना जाता है। वर्तमान महासमुंद जिले की बागबाहरा तहसील से 15
किलोमीटर की दूरी पर स्थित यह गढ़ गोंड़ राजाओं के आधिपत्य में था। वर्तमान
में कोमाखान में इन गोंड़ राजाओं के वंशज निवास करते हैं। कोमाखान में
जीर्ण शीर्ण अवस्था में इनका महल भी है।
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| चित्र पर चटका लगा कर देखें |
जनश्रुति है कि इस गढ़ के गढ़पति राजा भईना को को गोंड बंधु डूडी शाह एवं
कोहगी शाह ने परास्त कर सुअरमार जमीदारी की नींव डाली थी। इस जमीदारी का
सुअरमार नाम होने के पार्श्व में रोचक किंवदन्ती है कि इस गढ़ को कलचुरियों
जीतने का काफ़ी प्रयास किया परन्तु सफ़लता नहीं मिली। पलासिनी (जोंक) नदी
के किनारे डूडी शाह एवं कोंहंगी शाह नामक भाईयों ने 8 एकड़ भूमि पर चने की
फ़सल उगाई थी। इस फ़सल को कोई जानवर रात्रि में आकर नष्ट कर जाता था।
भाईयों ने उस जानवर का पता करने के लिए रात्रि की चौकीदारी के दौरान उन्हे
विशालकाय पाँच पैर वाला सुअर फ़सल नष्ट करता हुआ दिखाई दिया। उन्होने तीर
चलाकर उसे घायल कर दिया।
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| सुअरमार गढ़ का आकाशिय दृश्य |
वह जानवर चिंघाड़ कर भागा, पीछा करने पर वह गढ़ पटना पहुंचा। वहां जाने पर
इन्हे पता चला कि यह पाँच पैर का सुअर नहीं हाथी है। उन्होने दरबार में
पहुंच कर शिकार पर दावा किया और हाथी को खींच कर बाहर निकाल लाए। गढ़ पटना
का राजा इनके दुस्साहस से चकित था, उसने कूटनीति खेली। इन्हे सजा देने की
बजाए सोनई गढ़ (नर्रा) को इनसे कब्जा करवाने की सोची। उसने सोनई गढ के राजा
भोईना को मार कर राज्य जीतने कहा। दोनों भाईयों ने वीरता पूर्वक लड़कर
राजा भोईना को मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद गढ पटना के राजा ने इन
भाईयों को वह राज्य सौंप दिया। हाथी को सुअर समझ कर मारने के कारण सोनई गढ़
का नाम सुअरमार गढ़ पड़ा।
| सुअरमार गढ़ की पहाड़ी |
छत्तीसगढ़ अंचल में सोनई रुपई की चर्चा प्रत्येक जगह पर मिल जाती है। गत
वर्ष देऊरपारा (नगरी) जाने पर वहाँ तालाब के किनारे सोनई रुपई की चर्चा
सुनने मिली। वहाँ मंदिर के पुजारी राजेन्द्र पुरी ने इन्हें धन से जोड़
दिया था और बताया था कि इस स्थान पर हंडा ढूंढने वाले आते हैं और यह सोनई
और रुपई है। सुअरमारगढ़ का प्राचीन नाम सोनई डोंगर था। इसे भी सोनई रुपई के
साथ संबंध किया गया है। किंवदन्ती है कि सोनई रुपई नामक दो बहनें गोंडवाना
राज्य की पराक्रमी योद्धा थी। ये बहनें प्रजावत्सल होने के साथ न्यायप्रिय
होने के कारण प्रजा में सम्मानित थी। इनका नाम सोना और रुपा था जो कालांतर
में सोनई और रुपई के रुप में प्रचलित हो गया। इन बहनों कि बहादुरी के
चर्चे दक्षिण कोसल में सभी स्थानों पर होने के कारण इन्हें देवी के रुप में
पूजा जाने लगा। इसलिए अन्य स्थानों पर भी सोनई रुपई की कहानी मिलती है।
| सुअरमार गढ़ में अतुल प्रधान |
सुअरमारगढ़ की परिखा 25 एकड़ में फ़ैली हुई है। पहाड़ी के पठार पर राजनिवास
के अवशेष मिलते हैं। यह हिस्सा दो भागों में विभाजित है जिसे खोलगोशान कहा
जाता है इसके अगुआ को गणपति कहते हैं। देवियाँ गढ पर विराजा करती हैं,
यहाँ की गढ देवी को महामाया कहा जाता है। कहा जाता है कि पूर्व में देवी को
खुश करने के लिए नरबलि दी जाती थी। कालांतर में भैंसों की बलि दी जाने लगी
अब बकरों और मुर्गों की बली दी जाती है। खोलगोशान के नीचे संत कुटीर है।
राजा गुप्त मंत्रणा करने लिए इस कुटी में राजगुरु से मिलने आते थे। यहाँ का
दशहरा प्रसिद्ध है, दशहरा मेला दस दिनों तक चला करता था। वर्तमान में
नरबलि की प्रथा समाप्त हो चुकी है।
| खंडहर होता कोमाखान का महल |
गढ का राजा न्यायप्रिय था, वह न्याय पाखर पर बैठ कर प्रजा की फ़रियाद सुना
करता था और न्याय दिया करता था। दंड देने के लिए अपराधी को पत्थर से बांध
कर पहाड़ी से नीचे फ़ेंक दिया जाता था। कहते हैं कि जो अपराधी पहाड़ी से
गिरकर भी जिंदा बच जाता था उसे कुलिया गांव के सरार में दफ़ना दिया जाता
था। इसलिए तालाब को टोनही सरार कहा जाने लगा। वैसे भी मान्यता है कि टोनहीं
मृत शरीर की साधना करके उसे जीवित कर लेती हैं और साधना करने के लिए एकांत
के रुप में श्मशान या सुनसान स्थानों का उपयोग करती हैं। टोनही सरार की
मान्यता के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है। किसी जमाने में यह स्थान दुर्गम
वनों से आच्छादित क्षेत्र था। वर्तमान में सारे वन कट चुके हैं। गढ़ के एक
स्थान को रानी पासा कहा जाता है, किंवदन्ती है कि पूर्व में रानियाँ
मनोरंजनार्थ यहां पर पासा खेला करती थी।
| कोमाखान का महल |
कोमाखान रियासत के ठाकुर उमराव सिंह द्वारा सन 1856 में गढ परिसर में
खल्लारी माता के मंदिर का निर्माण किया गया। जिसकी पूजा अर्चना सतत जारी
है। वर्तमान में सुअरमार गढ़ के पूर्व जमींदार ठाकुर भानुप्रताप सिंह के
प्रपोत्र ठा उदय प्रताप सिंह एवं ठाकुर थियेन्द्र प्रताप सिंह मौजूद हैं
तथा कोमाखान में निवास करते हैं। इनका पुराना राजमहल भी मौजुद है जो
वर्तमान में खंडहर हो चुका है। इन्होने सुअरमार गढ़ के विकास के लिए 33
एकड़ भूमि का दान किया है। सुअरमार जाने के लिए बस एवं रेल्वे की सुविधा
उपलब्ध है। सुअरमार गढ़ के मुख्यालय कोमाखान से मात्र 2 किलोमीटर की दूरी
पर रेल्वे स्टेशन हैं। जहां प्रतिदिन 6 रेलगाड़ियों का ठहराव है। रायपुर
एवं महासमुंद से यहाँ के लिए बस एवं टैक्सी सेवा भी उपलब्ध है। किसी जमाने
में सुअरमार गढ़ छत्तीसगढ़ की महत्वपूर्ण रियासत थी। जिसके अवशेष अभी भी
देखे जा सकते हैं।
फ़ोटो - अतुल प्रधान से साभार
फ़ोटो - अतुल प्रधान से साभार






































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